जानिए क्या कहता है आयुर्वेद अपने दिल के बारे में-heart disease causes in hindi
heart disease causes in hindi-हृदय हमारे शरीर का अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है। इसके धडकते रहने को ही जीवन कहते है। इसे मन का स्थान भी कहा गया है।
जिसे साहित्यकारों, कवियों एवं शायरों ने भी अनेक उपमाओं से अपनी रचनाओं को अलंकृत किया है।
जितना मानव जीवन में इसका महत्व है उतना ही इसका चिकित्सा शस्त्र में भी महत्व है। यह कोमल मांसपेशियों से बना अवयव है।
भारतीय वैज्ञानिकों को इसका ज्ञान वैदिक काल 1000 वर्ष ईसा पूर्व से ही था। आयुर्वेदीय संहिता ग्रंन्थों में हृदय रोगों का संक्षिप्त वर्णन है।
माधव निदान में हृदय रोगों का स्वतंत्र वर्णन है। गुरूड-पुराण में हृदय रोगों का विस्तृत वर्णन है गर्भ के तीसरे माह में हृदय की उपस्थिति का वर्णन उपलब्ध है।
अथर्ववेद में हृघोता हृदयरोग तथा हृदामय इन तीन शब्दों का उल्लेख प्राप्त होता है। अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद को कहा गया है।
हृदय को सघः-प्राण हर मर्म भी कहा गया है जिसका अभिप्रायः हैं चोट से आहत होते ही तुरंत मृत्यु हो जाती हैं।
इसे हृदयाभिघात या हृदयघात (Myocardial Interaction) कहते हैं। अतः हृदय की आघात से विशेष रक्षा का उपदेश किया हैं।
संहिताओं के अनुसार साधक पित्त, अवलम्बक कफ, व्यान-वायु हृदयाश्रित होते हैं एवं हृदय की सामान्य क्रिया के लिये ये तीनों उतरदायी होते हैं।
इनके विकृत होने पर हृदय रोगों की उत्पत्ति होती हैं। यह चेतना मन और ओज का स्थान हैं। अतः मानसिक भावों चिंता, शोक, भय, त्रास, क्रोध, ईष्र्या का हृदय पर गंभीर प्रभाव पडता हैं।
ओज का स्थान होने से प्राणों का मूल हैं। रसवह स्त्रोत का मूल भी कहा हैं।
हृदय रोगों के भेद एवं लक्षण:-
आचार्य चरक ने पांच, आचार्य सुश्रुत ने चार एवं अन्यत्र सात प्रकार के हृदय रोगों का उल्लेख हैं।
चरक संहिता में (1) वातिक (2) पैतिक (3) कफज (4) सन्निपात (5) कृमिज ये पांच भेद किए हैं जिनमें क्रमशः निम्न लक्षण प्रकट होते हैं।
वातिक – हृदय रोगों में खींचने जैसा शूल, सुई चुभाने जैसा दर्द, कुचलने जैसी पीडा, तोडने जैसी पीडा, फाडने जैसी पीडा (हृदय में) जकडाहट मूर्छा आदि।
पैतिक- हृदय रोगों में तृष्णा, ऊष्मा, दाह, चोश, हृदय क्लम (बिना परिश्रम के थकावट) ताप वृद्वि, ज्वर आदि।
कफज – भारीपन, मुख से लाल स्त्राव, अरूचि, अग्निमांद्य, मुंह का मीठा रहना, हृदय में जकडाहट आदि
सन्निपातज- इसमें तीनों दोषों के मिले जुले लक्षण मिलते हैं।
कृमिज हृदय रोग – नेत्रों में श्यावता, तीव्र वेदना , खुजली आदि।
रोगों के कारण –
– अति रूक्ष एवं शुष्क अन्न सेवन
– अल्प भोजन या अधिक मात्रा में भोजन
– शोक, भय, मानसिक तनाव, अभिघात , अतिश्रम एवं ज्यादा भूखे रहना
– अम्ल लवण तिक्त रस का अति सेवन
-अति उष्ण आहार
-मघपान एवं अतिक्रोध
– गरिष्ठ एवं चिकनाई युक्त भोजन ज्यादा करना
– आराम तलबी का जीवन जीना
– पान, सुपारी, जर्दा, गुटका, भांग, गांजा, पान मसालों का प्रयोग करना
– धुम्रपान
– भेड का दूध, सूखे पत्तेदार सब्जियाँ, मैदा से बने पदार्थ आदि
इन कारणों से वातादि दोष प्रकुपित होकर रस आदि धातुओं को दूषित कर हृदय के कार्यो में बाधा उत्पन्न कर हृदय रोग उत्पन्न करते हैं।
वैद्य रवीन्द्र गौतम मो. 9414752038
आयुर्वेद चिकित्साधिकारी
आयुर्वेद – विभाग ,राजस्थान – सरकार