श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय द्वितीय – श्लोक 8 व 9
श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय द्वितीय – श्लोक 8 व 9
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम्
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।2.8।।
अर्थः- भुमि में निष्कण्टक,धन धान्य सम्पन्न राज्य को तथा देवताओं के स्वीमीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस साधन को नहीं देखता हूँ जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दुर कर सके ||8||
सञ्जय उवाच-
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।2.9।।
अर्थः-(धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए) संजय बोले – हे राजन ! निंद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्री गोविन्द भगवान से “मैं युद्ध नहीं करूंगा” यह कहकर चुप हो गये ||9||
तात्पर्यः- पूर्व के श्लोक में अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण को गुरू बनाया तथा उनसे कल्याणकारी मार्ग सुझाने के लिए प्रार्थना की।यहाँ अर्जुन यह भाव प्रकट कर रहे है कि पहले आपने मुझे युद्ध करने को कहा था किन्तु यदि मुझे इस युद्ध में विजय भी प्राप्त हो जाये भगवान तथा पृथ्वी का धन-धान्य सम्पन्न निष्कण्टक राज्य भी मिल जाय तथा मुझे स्वर्ग का राज्य भी मिल जाय तो भी इन्द्रियों को सुखा देने वाले मेरे मन के शोक(दुःख) को वह दुर नहीं कर सकता।
इसलिए हे गोविन्द में युद्ध नहीं करूंगा ऐसा कहकर अर्जुन चुप हो जाते है तथा भगवान से मार्गदर्शन चाहने के लिए चुप हो जाते है। ताकि भगवान की बात वह सुन सके ताकि अर्जुन को निर्णय लेने में आसानी हो।
यहाँ पर भी अर्जुन के मन में सन्यास का भाव है उन्हें भौतिक वस्तुओं से अर्थात राज्य-वैभव यहाँ तक की स्वर्ग के राजा बनने से भी कोई मोह नहीं है वह तो मन के शोक(संताप) को दुर करना चाहता है। मन का संताप या पीड़ा तो तब तक दुर नहीं हो सकती जब तक सद्गुरू की कृपा प्राप्त न हो।
इसलिए ही मन के संताप को दुर करने के लिए अपने तर्क को प्रस्तुत करता हुआ भगवान से मार्ग दर्शन चाहता है।
यह श्लोक बताते है कि हमें जीवन में किसी भी प्रकार की समस्याएं हो हमें कोई मार्ग नहीं सुझ रहा हो तो हमें उस समस्या से सम्बन्धित एक्सपर्ट से ही मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये ताकि हमें सहीं डिसीजन मिल सके।
बिजनेस में समस्या हो तो हमें बिजनेस के एक्सपर्ट की मदद लेनी चाहिये ताकि आपकी बिजनेस की समस्या दुर हो सके। यदि शारीरिक बीमारी या रोग सम्बन्धी परेशानी में किसी डॉक्टर या वैध की सलाह के अनुके अनुसार चलना चाहिये। यदि कानुनी परेशानी हो तो कानुन में एक्सपर्ट वकील की राय लेनी चाहिये।
मानसिक परेशानी हो तो मनोचिकित्सक की सलाह पर चलना चाहिये। यहाँ पर अर्जुन के मन में युद्ध कैसे करना है यह समस्या नहीं है क्योंकि अर्जुन युद्ध कला में तो कुशल है तथा वह जानता है कि वह युद्ध करे तो विजय निश्चित है
परन्तु युद्ध करने में पारिवारिक मोह अड़चन बना हुआ है तथा उसके मन को शोकाकुल कर रहा है।
तथा मन में पारिवारिक मोह के कारण उसके मन में सन्यासी की भॉति विचार पैदा हो रहे है यदि युद्ध में सामने परिवार के लोग नहीं होते तो अर्जुन सन्यासी की भॉति नहीं सोचता बल्कि युद्ध करता अतः उसके मन में वैराग्य जो पैदा हुआ है वह सत्य नहीं है।
अर्जुन पारिवारिक मोह से निवृत बिना सदगुरू के नहीं हो सकते इसलिए अर्जुन कृष्ण का शिष्यत्व स्वीकारता है तथा मार्गदर्शन की प्रार्थना करता है।
———————–अस्तु श्री शुभम् ——————————————