अर्जुन ने श्री कृष्ण को रथ दोनों सेनाओ के मध्य ले जाने को क्यों कहाँ ?

प्रथम अध्याय – श्री मद् भगवद्गीता
श्लोक 20 से 23
“अथ व्यवस्थितान्दृष्टा धार्तपराष्ट्रान् कपिध्वजः |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरूघम्य पाण्डवः||20||
“हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते |
सेन्योरूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेच्युत||21||
अर्थः- हनुमान चित्र अंकित ध्वजा लगे रथ पर बैठे हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर तीर चलाने को तैयार हुआ। फिर हृषीकेश श्री कृष्ण से यह वचन कहा।
अर्जुन बोलेः- हे अच्युत मेरे रथ को दोनो सेनाओं के बीच खड़ा कीजीए।
“यावदेतान्निरीक्षेअहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुघमे||22||




अर्थः- मैं यहाँ उपस्थित युद्ध की इच्छा रखने वाले कौरवो के योद्धओं को देख सकु ताकि मुझे पता चले की मुझे किन-किन से युद्ध करना है।
“योत्स्यमानानवेक्षेअहं य एतेअत्र समागताः|
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः||23||
अर्थः- मुझे उन लोगो को देखने दीजीए जो दुर्बुद्धि दुर्योधन को प्रसन्न करने की इच्छा से युद्ध करने आये है।

तात्पर्यः-
युद्ध प्रारम्भ होने ही वाला था उस समय अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा कि रथ दोनो सेनाओं के मध्य ले चलो ताकि अन्याय करने वाले दुर्योधन का साथ देने के लिए उसकी प्रसन्नता के लिए कौन-कौन राजा उसकी ओर से युद्ध करने आए है। इसे अर्जुन देखना चाहता था।
कौरव व पांडव दोनो अपनी-अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए तैयार खड़े थे। अर्जुन को अपने पक्ष के बारे में तो पता था परन्तु वह कौरवो की जानकारी युद्ध से पहले कर लेना चाहता था। ताकि वह विजय प्राप्त कर सके।
हम कोई भी कार्य आरम्भ करे जैसे बिजनेस,खेल,युद्ध किसी मे भी सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि केवल अपने पक्ष की जानकारी से ही कार्य नहीं चलता बल्कि सामने वाले पक्ष की भी जानकारी होने पर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। अर्जुन ने अपने रथ को दोनो सेनाओं के मध्य इसलिए ले जाने को कहा ताकि वह समान दृष्टि से साक्षी भाव से दोनो पक्षो की तुलना कर सके तथा अपनी कमियों को दुर कर विरोधी पक्ष की कमजोरी का पता लगाकर उस पर विजय प्राप्त कर सके।
व्यक्ति जब मुसीबतों से घिरा हो उसे कोई मार्ग न सुझ रहा हो तो हमें परमात्मा की प्रार्थना करनी चाहिये ताकि मन को दिशा मिले तथा हम सही निर्णय लेने में समर्थ बने।
अर्जुन अपने रथ की बागडोर श्री कृष्ण को सौपकर निश्चिन्त हो गया था उसी प्रकार हम अपने को परमात्मा को अर्पित कर दे तो परमात्मा हमे अच्छे बुरे में तुलना करवा कर हमें निर्णय लेने में समर्थ बनाता है ताकि हम सफलता प्राप्त कर सके।
परमात्मा जो भी करता है उसमें हमारा हित छुपा हुआ होता है परन्तु तब जब हम अपने आपको परमात्मा को सुपुर्द कर दे हमारे जीवन की बागडोर उसे सौपदे तो हम निश्चित सफल होते है।

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