पांडव सेना देखकर दुर्योधन गुरू द्रोणाचार्य के पास क्यों गया ?

श्रीमद् भगवत् गीता प्रथम अध्याय

श्रीमद् भगवद्गीता प्रथम अध्याय
श्लोक – 2
संजय उवाच –
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढ़ं दुर्योधनस्तदा |
आचार्यमुपसंगम्य द्रपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ||2||
संजय बोले –
दुर्योधन ने पांडव सेना की व्यूह रचना देखकर द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा ।
“पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |
व्यूढ़ां द्रपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ||3||
अर्थ – हे आचार्य आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र धृष्टधुम्रद्वारा व्युह रचना की गई पाण्डुपुत्रों की इस विशाल सेना को देखिए।

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दुर्योधन ने जब पांडवो की सेना को देखा जो उत्साह ये भरी हुई थी,आक्रमण के लिए तैयार थी तथा उनके व्यूह की व्यवस्था देखकर दुर्योधन के मन में अज्ञात भय उपस्थित हुआ। इस अज्ञात भय को कम करने के लिए वह गुरू द्रोणाचार्य के पास गया तथा बोला की हे आचार्य जिसको आपने शिक्षा दी, युद्ध विद्या से पारंगत किया वह द्रुपद पुत्र धृष्टधुम्न ने बहुत अच्छी तरह की व्यूह रचना की है।

सदैव से दुर्योधन के मन में यह था कि आचार्य द्रोणाचार्य पांडवो से विशेष प्रेम करते है अत: दोणाचार्य यद्यपि युद्ध में मजबुरी से उसके साथ खड़े है परन्तु वह मन से पांड़वो के साथ है इस बात को वह जानता था इसलिए यह दिखाने के लिए वह अपने शिष्यो से कमजोर न पड़ जाये,दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास आया अपनी बात कहते वक्त दुर्योधन यह जताने की कोशिश भी कर रहा है कि देखो तुम जिससे ज्यादा अच्छा शिष्य मानते थे।

वह आज तुम्हारे सामने युद्ध के लिए खड़ा है तथा आपने पांडवो को प्रेम देकर गलती की इस बात को भी वह दिखाना चाहता है।
तथा मन से दुर्योधन यह चाहता है कि ऐसी बात करने से गुरू द्रोणाचार्य के मन में पांडवो के प्रति क्रोध पैदा हो तथा वह पुरी निष्ठा के साथ उसके साथ खडे हो तथा साथ ही वह द्रोणाचार्य के मन में इस बात को डालना चाहता है कि कहीं आप अपने शिष्य से मात न खा जाओ।

क्योंकि पांडवो को युद्ध कला का ज्ञान आपने दिया है तथा सदैव दुर्योधन के मन में बचपन से यह बात बैठ गई थी कि गुरू द्रोणाचार्य ने पक्षपात करके पांडवो को गुप्त रहस्य सिखायो है तथा उसको पुरा ज्ञान नहीं दिया है। पक्षपात करके पांडवो को अधिक ज्ञान दिया है तो देखो अब वे सभी आपके विरूद्ध खड़े है तथा बहुत अच्छी तरह व्यूह रचना की है।

पांडवो की व्यूह रचना का तथा सेना के उत्साह ने दुर्योधन के मन को थोड़ा कमजोर किया ऐसा लगता है तभी वह आचार्य द्रोण के पास गया तथा अपरोक्ष रूप में वह द्रोणाचार्य को यह कहना चाहता है कि अब तो पांड़वो का मोह छोडो तथा मेरे हित का चिन्तन करते हुए पुरी तरह,पुर्ण मन से मेरे साथ रहो।

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