ऐसा गुरू जिसने परमात्मा का अनुभव कर लिया है अर्थात आत्म तत्व को समझ लिया है..सदगुरू कहलाता है क्योंकि परमात्मा तत्व से जुड़कर वह स्वयं परमात्मा ही हो जाता है। ऐसे गुरू के पास बैठते है तो चाहे सदगुरू बोले या न बोले उसकीं स्नेह भरी नज़र हम पर पड़ती है साथ ही उसकी ओरा के सम्पर्क में हम आते है तो उनकीं शक्ति से हमारे केन्द्रों को ऊर्जा मिलती है तथा वह जाग्रत होने लगते है।
ऊर्जा अधिक से कम की ओर गति करती है तथा बैलेन्स बनाने का प्रयत्न करती है। जैसे हम जहां हो वहां गर्मी हो तथा दूसरे स्थान पर ठंड़क हो तो हवा चलती है तथा जब तक चलती है जब तक तापमान समान हो जाए। हम भी चुम्बक है तथा गुरू भी चुम्बक है ।
सदगुरू ने अपने केन्द्रों को जाग्रत कर रखा है अत: वह प्रबल चुम्बक है तथा ध्रुवण होता है तथा हम सदगुरू के प्रबल चुम्बक की ओरा में आ जाते है तथा ऊर्जा की गति उनकीं ओर से हमारी ओर होती है तथा तब तक होती रहती है जब तक समान स्थिति न हो जाए अत: सदगुरू के पास बैठना ही हमारी आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ करवा देता है। तथा सामुहिक ध्यान जब किया जाता है तो हमें ज्यादा ऊर्जा प्राप्त होती है।
क्योंकि सभी छोटे-छोटे चुम्बक एक होकर प्रबल चुम्बक बन जाते है अत: सामुहिक ध्यान भी आध्यात्मिक ऊर्जा को बढ़ाता है हम अकेले ध्यान करे इसकी अपेक्षा सामुहिक ध्यान करे तो अच्छा होता है। यदि सदगुरू ने शक्तिपात कर दिया है तो अकेले ध्यान करना भी अच्छा रहता है।
सदगुरू के स्नेह की बरसात तो हम पर होती ही रहती है परन्तु हम छाता ओढ़कर बैठे तथा भीगने का आनंद न ले तो दोष हमारा है। भारत भूमि में कई सदगुरू है जहां भी आपकी श्रृद्धा जम जाए जिसके पास बैठने आत्मिक शांति प्राप्त हो। जिसकी दीक्षा लेने के बाद गुरू की क्रिया करने के बाद आपको मानसिक शांति प्राप्त हो तो उस सदगुरू में आस्था रखों निश्चित ही आपको सफलता प्राप्त होगी।
भारत भूमि संतो की भूमि है संत का अर्थ होता है जिसका अन्त हो चुका हो अर्थात जिसका देहभाव समाप्त हो गया हो, जो अपने को देह न मानकर आत्मा मानता हो उसके पास बैठकर ध्यान करना चाहिए। ध्यान करने के लिए जिस आसन में आप ज्यादा समय बैठ सकते हो उस आसन में बैठे तथा रीढ़ की हड्डी सीधी रखें।
शरीर को ढीला छोड़ दे अर्थात आराम की स्थिति में रखे चाहे तो हाथो को ज्ञान मुद्रा या अन्य मुद्रा में रखें या दोनों हाथो की अंगुलिया मिलाकर हाथ गोद में रख दे या जैसा भी आपको ठीक लगे ज्यादा देर हाथो के रख सके वैसे रखे तथा चाहे तो गुरू मंत्र का मानसिक जप कर सकते है नहीं तो श्वास के आने-जाने पर मन को लगाये।
श्वास आ रहा है जा रहा है उसका अनुभव करे । श्वास अंदर जाती है श्वास के साथ प्राण तत्व भी भीतर जाता है तथा प्राण तत्व का सम्पर्क मन व आत्मा से होता है अत: अंदर उतरने की क्रिया आरम्भ हो जाती है। मन श्वास से हट जाए तो पुन: श्वास पर लगावें आँख चाहे तो खुली रखें या बंद रखे।
मेरा मानना है कि प्रारम्भ में यदि आँखे बंद रखोंगे तो मनोराज हो जायेगा। यदि प्रारम्भ में आँखे आधी खुली रखे तो मनोराज नहीं होगा तथा जैसे-जैसे विचारों की भीड़ कम हो जाए आँखे बंद कर सकते हो। आपको विचारों से जुड़ना नहीं है केवल विचारों को देखना है कैसा भी विचार आए आपको उसके साथ जुड़ना नहीं है या विचारों को हटाने की कोशिश नहीं करनी है।
जो विचार पैदा हुआ है वह स्वयं खत्म हो जायेगा। केवल विचारों को देखे। धीरे-धीरे विचारों की भीड़ कम हो जाएगी तथा एक समय ऐसा आएगा की मन निर्विकारी हो जायेगा। आप चाहे तो गुरूमंत्र को श्वास के साथ जोड़कर भी मानसिक जप कर सकते है।
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ओह अदभुत। भीतर की यात्रा यही है