अध्याय प्रथम
श्लोक 35
क्या अहिंसा का पालन सबको करना चाहिये ?
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।35।।
अर्थः- हे मधुसुदन ये मुझको ही मार डाले परन्तु उनकी हत्या का विचार मन में न लाऊ। चाहे मुझे तीनों लोंको का राज्य भी क्यों न मिले तो भी इनको नहीं मारना चाहता।
अर्जुन यहां सन्यासी की भांति बात कर रहा है। अहिंसा की बात कर रहा है यह बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है कोइ हमारा कितना ही बुरा क्यों ना कर दे हमें माफ कर देना चाहिये परन्तु अर्जुन यहां सन्यासी नहीं है क्षत्रीय है तथा वह युद्ध में खड़ा है तथा उसे युद्ध करने का कर्म करना है परन्तु वह आज युद्ध से विमुख होने की बात कर रहा है वह गलत है।
उसका कर्तव्य है कि वह युद्ध करे पापीयों को सजा दे चाहे वह भाई बन्धु ही क्यों न हो । कोइ सन्यासी अहिंसा की बात करे तो समझ में आता है परन्तु यदि हमारे सैनिक जो देश की रक्षा के लिए तैनात है यदिको वे यह कहें कि हम दुश्मन को क्यों मारे उन्होंने तो हमारा कुछ बिगाड़ा ही नहीं है यहां तक कि उन्हें तो हम पहचानते ही नहीं है फिर क्यों उनका संहार करे हम तो अहिंसावादी देश के रहने वाले है तो क्या यह उचित होगा ?
हमारे नेता भी अहिंसा की बात करते है तथा यदि सैनिक अहिंसा को अपना ले तो क्या हो जायेगा ऐसा सोचते ही मन में भय समा जाता है। ऐसा अहिंसा का विचार सैनिकों के मन में आआ जाये तो युद्ध में दुश्मन को मारने पर अपराध बोध से ग्रस्त हो जायेंगे तथा स्वयं को पापी समझने लगेंगे अतः अहिंसा श्रेष्ठ है परन्तु सबके लिए अहिंसा का पालन करना सही नहीं है।
यदि कोइ व्यक्ति तुम्हे बार-बार हानि पहुंचा रहा हो तथातथा क्षमावीरस्यभूषणम् ऐसा सोचकर बार-बार तुम उसको माफ कर देते हो तो इसका परिणाम तुम्हारे लिए नुकसानप्रद भी हो सकता है। जैसे पृथ्वीराज चौहान हर बार मोहम्मद गौरी से जीत जाता था परन्तु हमेशा माफ कर देता था इतिहास बताता है कि जितनी भी बार पृथ्वीराज जीता उतनी बार उसने मोहम्मद गौरी को माफ कर दिया तथा एक बार पृथ्वीराज हार गये तो मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को अमानवीय यंत्रणा दी उसकी ऑखे निकाल दी परन्तु भारत के वीर ने अंधा होने के बावजुद मोहम्मद गौरी को शब्द भेदी बाण से मार ड़ाला तथा अपने साथ हुए अपमान का बदला लिया।
जो अत्याचार करते है ऐसे अत्याचारियों को मारना पाप नहीं है यदि तुम अत्याचार सहते जाओ तथा विरोध न करो तो वह पाप है।
कहते है जलती आग को पार करने का साहस कोइ नहीं करता परन्तु लकड़ी को प्रत्येक पार कर जाता है क्योंकि उसमें अग्नि छुपी रहती है। अगर कोइ तुम पर अत्याचार करे तो उसका निश्चित विरोध करना चाहिये।